Wednesday, June 22, 2016

मैं हूं न, पापा !

अचानक होने वाली पत्नी की मौत ने उसे बुरी तरह से आहत कर डाला था। मिलने-जुलने वालों तथा रिश्तेदारों के पास होने से दिन तो किसी तरह कट गया परन्तु रात का अन्धेरा उसे खाने को आ रहा था। उसके बराबर में पांच साल का एक बेटा और आठ साल की पुत्री सोयी हुई थी। वह थोड़ी देर तक  उनकी तरफ ताकता रहा, फिर फफक-फफक कर रो पड़ा। बन्द आंखों से आंसू धारा बनकर बह रहे थे।
सहसा उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ रखा महसूस हुआ। उसने मुंह  घुमाकर देखा। बेटी घुटनों के बल बैठी उसके कंधे पर हाथ रखे हुए थी।
पिता को अपनी ओर देखते पाकर बोल उठी, ‘पापा, आप रो क्यों रहे हो?’ ‘बेटी अब तुम्हारे भाई की देखभाल कौन करेगा? कौन तुम लोगों के कपड़े  धोयेगा? कौन हम सब के लिए खाना पकायेगा?’ कहते-कहते फिर से फफक उठा था वह।
मैं हूं न, पापा! आप रोईये मत।बेटी किसी बड़ी औरत की तरह कह रही थी। उसने बेटी के मुंह की ओर देखा तो लगा कि बेटी नहीं, उसकी अपनी मां उसे सांत्वना दे रही है।

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